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Inspirational tit-bits from Swami Atmananda

Swami Atmananda


    • Apr 18, 2022 LATEST EPISODE
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    • 44m AVG DURATION
    • 80 EPISODES


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    Upadesh Saar-11 / उपदेश सार-११

    Play Episode Listen Later Apr 18, 2022 124:29


    उपदेश सार के अंतिम, ११वें प्रवचन में पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज बताते हैं की पूर्व के श्लोक में आत्मा-चिंतन का महादेव ने तरीका बताया अब इसका एक और सरल उपाय बताते हैं। यह है - पांचकोश विवेक। साधक को एक एक करके उपाधियों में अपनी एटीएम बुद्धि को समाप्त करना चाइये तब ही आत्म-ज्ञान में स्थिरता होती है। विपरीत ज्ञान ही ज्ञान में निष्ठां के बाधक होते हैं। अंतिम प्रवचन में आत्मा-ज्ञान के लक्षण, मुक्ति का स्वरुप और वास्तविक तपस्या का स्वरुप सब बताते हैं।

    Upadesh Saar-10 / उपदेश सार-१०

    Play Episode Listen Later Apr 18, 2022 129:57


    उपदेश सार के १०वें प्रवचन में पूज्य गुरूजी श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज बताते हैं की अपने मन पर विचार करने के लिए एक सरल उपाय होता है। वे बताते हैं की मन वृत्तियों का प्रवाह होता है। हमारे मन में प्रत्येक वृत्ति किसी न किसी विषय की तरफ हमारा ध्यान मोड़ती है। अतः मोटे तौर से इन सब वृत्तियों को 'इदं वृत्ति" कहा जाता है। यद्यपि ज्यादातर वृत्तियाँ इदं वरीतियाँ हैं लेकिन सब नहीं। सबके मन में एक और विलक्षण वृत्ति होती है, और वो है "अहम् वृत्ति"। इस अहम् वृत्ति के ऊपर ही समस्त इदं वृत्तियाँ आश्रित होती हैं। इसीलिए इस "अहम् वृत्ति" को विद्वान लोग वास्तविक मन कहते हैं। अब मन के ऊपर विचार आसान हो गया, अब हमें केवल एक वृत्ति के ऊपर ही विचार करना है। अहम् वृत्ति कहते हैं अपने मन में अपने आप की धारणा को। जब इसके ऊपर विचार होता है तब एक आश्चर्यजनक चीज़ होती है - यह अहम् वृत्ति गिर जाती है, अर्थात इसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व दिखाई नहीं देता है। जिसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व हो वो ही टिकती है। जिस जगह अहम् वृत्ति थी वहां ही एक परम पूर्ण सत्ता शेष रह जाती है। वो ही वस्तुतः हम होते हैं।

    Upadesh Saar-9 / उपदेश सार-९

    Play Episode Listen Later Apr 18, 2022 125:41


    उपदेश सार के ९वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की एक-चंतन रुपी साधना के लिए महर्षि कहते हैं जब तक दूसरे का अस्तिव्त है तब तक ही मन कहीं भटकेगा लेकिन जब अन्य मिथ्या हो जाता है और आत्मा ही सत्य जान ली जाती है तब मन कहाँ जायेगा? इसके लिए वे केहते हैं की अपने मन में जो कोई भी विचार हैं उन्हें दृश्यवारित अर्थात दृश्य से रहित कर देना चाहिए। तब हमें चित्त का तत्त्व जिसे चित्व कहते हैं वो दिखेगा। चित्व ही तत्त्व होता है। जिसने तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया उसका मन भटकना बंद हो जाता है। इसके लिए वे कहते हैं की हमें अपने मन पर विचार करना चाहिए - मानसं तु किम - हे मन तू क्या है? इस विचार की प्रक्रिया को वे आगे बताते हैं।

    Upadesh Saar-8 / उपदेश सार-८

    Play Episode Listen Later Apr 13, 2022 124:16


    उपदेश सार के ८वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की जब किसी पुण्यात्मा ने अपने जीवन में भक्ति का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया तो निश्चित रूप से उसका मन शान्त और सात्त्विक हो जाता है, लेकिन जब तक ईश्वर के चरणों में अनुराग प्राप्त नहीं होता है, तब तक मन इधर-उधर भटकता है। कई बार आँधियों और तूफ़ान आते हैं, ऐसे मन को कैसे निग्रहीत करा जाये। इसके लिए भगवान् यहाँ मन को शीघ्र शांत करने की एक विद्या देते हैं। वह है प्राणायाम। उसमे भी विशेष रूप से बाह्य कुम्भक। जब साँस बहार निकल कर थोड़ी देर रुका जाता है तो चुटकी में सब विचार रुक जाते हैं, और मन का लय हो जाता है। लेकिन यह क्षणिक होता है लेकिन मनुष्य को इसका लाभ अवश्य लेना चाहिए। हाँ अगर किसी को यह जिज्ञासा हो की मन के प्रवाह को स्वाभाविक रूप से शान्त कैसे किया जाये तो वे कहते हैं की इसकी भी साधना होती है। और वो है - एक का चिंतन और ज्ञान। इससे मनोनाश प्राप्त हो जाता है। लय और मनोनाश दोनों में वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं।

    Upadesh Saar-7 / उपदेश सार-७

    Play Episode Listen Later Apr 13, 2022 129:33


    उपदेश सार के सातवें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ८वें से लेकर १०वें श्लोक पर चर्चा करते हैं। भक्ति की साधना मोठे तौर से दो भागों में विभाजित होती है। एक में भगवान् अभी भक्त से अलग होते हैं, वे हम से अलग किसी लोक में रहते हैं, तथा बाद में कुछ लोग भगवन को अपने ह्रदय में अंतर्यामी की तरह से जानते हैं। ऐसे भक्त कभी अपने को भगवान् का अंश देखते हैं और कभी तो पूर्ण एकता भी देखते हैं। इन दोनों का क्रम से महत्त्व होता है। इन दोनों का महत्त्व पूज्य स्वामीजी महाराज से समझाया। प्रारम्भ में भेद-भावना से भजन करना न केवल स्वाभाविक होता है बल्कि इसके अनेकानेक लाभ भी होते हैं। जिसमे भेद भावना होती है वे ही ईश्वर के गुण आदि ठीक से समझने की कोशिश करते हैं, अन्यथा उनका ध्यान अपने आप से हटता ही नहीं है। जब ईश्वर के ईश्वरत्व का परिचय हो जाए तभी उनसे एकता उचित और कल्याणकारी होती है। इसके अलावा पूज्य गुरूजी ने बताया की भक्ति, कर्म, ज्ञान आदि सभी योगों का पर्यवसान तब होता है जब हमारा मन अपनी सात स्वरुप आत्मा में होने लगता है। निर्मल और शुद्ध कहलाता है। ऐसे लोगो का मन स्वाभाविक रूप से शान्त और विचारशील हो जाता है।

    Upadesh Saar-6 / उपदेश सार-६

    Play Episode Listen Later Apr 1, 2022 118:40


    उपदेश सार के छठे प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ५वें से लेकर ७वें श्लोक पर प्रकाश डालते हैं। ये तीनों श्लोक पिछले श्लोक में बताई गयी तीनों साधनाओं का स्वरुप दिखाते हैं। अर्थात, पूजा क्या होती है, जप क्या है और कैसे होता है और ध्यान किसे कहते हैं।

    Upadesh Saar-5 / उपदेश सार-५

    Play Episode Listen Later Apr 1, 2022 119:48


    उपदेश सार के पांचवे प्रवचन में ग्रन्थ के चौथे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्य स्वामी जी ने बताया कि इस श्लोक से भगवान् हमें ईश्वर भक्ति की प्राप्ति के साधन बता रहे हैं। हमारी तीन धरातल की चर्चा करते हुए वे कहते हैं की एक हमारा शारीरिक धरातल होता है, एक इन्द्रिय, और विशेष रूप से वाणी का और तीसरा अत्यंत महत्वपूर्ण हमारे मन का धरातल होता है। हमें अपनी "आसक्ति से भक्ति" की प्राप्ति की यात्रा के लिए तीनों धरातल का सदुपयोग करना चाहिए। वे हमारे शरीर, वाणी और मन की तीन सर्वोत्कृष्ट साधनाएं बताते हैं - जो हैं, पूजा, जप और ध्यान। इनके अभ्यास से हमारे मन में निश्चित रूप से ईश्वर की भक्ति की प्राप्ति हो जाती है।

    Upadesh Saar-4 / उपदेश सार-४

    Play Episode Listen Later Apr 1, 2022 101:35


    उपदेश सार के चौथे प्रवचन में ग्रन्थ के तीसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि पिछले श्लोक में महादेवजी ने बताया की कर्म कब मन रुपी मुकुर (शीशे) करने वाला बन जाता है, और अब इस श्लोक में वे बताते हैं की कर्म कब बंधनकारी बन जाता है। जिसकी प्राथमिकताएँ लौकिक वस्तुओं की होती हैं वे लोग ही बाहरी घटनाओं से प्रभावित होते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन के मूल लक्ष्य के बारे में गहराई से विवेक नहीं करा है, इसीलिए अनेकानेक लौकिक उपलधयों के बाद भी खाली हाथ रहते हैं। इसलिए यह कर्म का अंदाज़ बंधनकारी होता है।

    Upadesh Saar-3 / उपदेश सार-३

    Play Episode Listen Later Apr 1, 2022 102:50


    उपदेश सार के तीसरे प्रवचन में ग्रन्थ के दूसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि कर्म अत्यंत समर्थ होता है। अनेकानेक लौकिक आवश्यकताएं कर्म से ही प्राप्त हो सकती हैं, इसलिए कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म केवल अपनी लौकिक जरूरतों के लिए नहीं होता है, लेकिन एक कर्म का अत्यंत महान और दिव्य सामर्थ्य के लिए भी होता है, जिसे विरले लोग ही जानते हैं। यह सामर्थ्य होता है - अपने मन को शान्त, सुन्दर, निर्मल और बुद्धिमान बना देने का। यह तो सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। इसलिए कर्म ऐसे ही लक्ष्य को रख कर किसी भी क्षेत्र में काम अवश्य करना चाहिए। कर्म हमें बांध भी सकता है और मुक्ति के लिए पात्र भी बना सकता है। वो बांधता तभी है जब लक्ष्य किसी नश्वर और लौकिक वस्तुओं के होते हैं। और यह ही कर्म जब ईश्वर के निमित्त बनकर उनकी ही प्रसन्नता के लिए करा जाता है - तब कर्म हमें समत्व से युक्त कर देता है और शनै-शनै मन शांत और सात्त्विक होने लगता है, अर्थात मुक्ति के लिए, आत्मा-ज्ञान के लिए पात्र बनने लगता है।

    Upadesh Saar-2 / उपदेश सार-२

    Play Episode Listen Later Apr 1, 2022 116:43


    उपदेश सार पर अपने दूसरे प्रवचन में उपदेश सार के पहले ष्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि भगवान शंकर अपने प्रिय कर्मनिष्ठ एवं तपस्वी भक्तों को एक मोक्षदायी उपदेश देने के लिए भूमिका बनाते हैं और पहले श्लोक में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताते हैं। पहली चीज़ वे कहते हैं की : १. कर्म सदैव अपने स्पष्ट संकल्प से प्रारम्भ करना होता है, लेकिन कर्म-फल सदैव ईश्वर की इच्छा से प्राप्त होता है। २. हम कर्म से कुछ भी प्राप्त कर ले, वे सब फल यद्यपि उपयोगी होते हैं लेकिन वे सदैव क्षणिक होते हैं, लेकिन हम सब किसी स्थायी सुख को ढूंढते हैं - उसे शिवजी 'परम' के नाम से संकेत करते हैं। ३. कर्म-फल क्षणिक होते हैं और साथ-साथ जड़ भी होते हैं।

    Upadesh Saar-1 / उपदेश सार-१

    Play Episode Listen Later Mar 1, 2022 75:16


    उपदेश सार ग्रन्थ पर प्रवचन श्रृंखला का शुभारम्भ करते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने इसकी भूमिका बताई। शिव पुराण के अंतर्गत प्राप्त इस कथा में उन्होंने बताया की - जब कुछ कर्म निष्ठ तपस्वी लोग अनेकानेक जीवन के लक्ष्य रखते थे और कर्म के साथ-साथ ईश्वर से भक्ति-पूर्वक आशीर्वाद भी प्राप्त करते थे तो उन्हें निश्चित रूप से बहुत सिद्धियां प्राप्त हो गयीं थी। तब उनके इष्ट भगवान् शंकर ने उन्हें कुछ विवेक देने हेतु ठानी। कुछ लीला बाद जब वे वविनम्र जिज्ञासु बने तब भगवान् ने उन्हें जो उपदेश दिया वह उपदेश ही यह "उपदेश सार" नामक ग्रन्थ है। कर्म महत्वपूर्ण होता है लेकिन कर्म से सदैव सिमित और संकुचित फल की ही प्राप्ति होती है। अतः नित्य और स्थाई तत्त्व की प्राप्ति हेतु कर्म नहीं बल्कि किसी ज्ञान विशेष का आश्रय लिया जाता है। लेकिन कर्म तब तक नहीं छोड़ना चाहिए जब तक ज्ञान की पात्रता नहीं उत्पन्न हो जाये।

    Atma-Bodha Lesson # 68 :

    Play Episode Listen Later Nov 12, 2021 31:09


    आत्म-बोध के आखिरी, अर्थात 68th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी महाराज हमें आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के तरीके और यात्रा को एक तीर्थ यात्रा से तुलना करते हैं। जैसे एक तीर्थ यात्रा किसी दूरस्थ देवता के दर्शन की तीव्र उत्कंठा से प्रेरित होती है, और जहाँ जाने के लिए हमें अपने समस्त परिवार के लोग, धन-दौलत, घर-बार आदि के प्रति मोह किनारे करना पड़ता है और ऐसी जगह जाते हैं जहाँ जाना भी अत्यंत दुष्कर और खतरों से युक्त होते हैं - फिर भी श्रद्धा और उत्कंठा इतनी तीव्र होती है की हम लोग यह सब कर पाते हैं - उसी तरह से आत्मा-ज्ञान की इच्छा वाले व्यक्ति भी ऐसी ही श्रद्धा, तपस्विता और उत्कंठा से युक्त होते हैं। यहाँ पर कुछ और गन भी चाहिए - वो है कर्मसन्यास। आत्मा के यथार्थ का ज्ञान कर्म का विषय नहीं होता है, अतः समस्त कर्म की मनोवृत्ति को शांत करके आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना होता है। वो आत्मा जो हर जगह, हर समय और हर दिशा में है। अब इन दिशा आदि की कोई चिंता नहीं है। ऐसी आत्मा को जानकर वे ज्ञानवान खुद सर्वव्यापी आदि हो जाते हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. आत्मा-ज्ञान की यात्रा की तुलना एक तीर्थ यात्रा से क्यों की गयी है ? २. आत्म-देव के साक्षात्कार के लिए क्या किसी विशेष कर्म आदि की आवश्यकता होती है? ३. आत्मा का ज्ञानी कैसा हो जाता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 67 :

    Play Episode Listen Later Nov 11, 2021 30:40


    आत्म-बोध के 67th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी महाराज हमें आत्म-ज्ञान के उदय को एक सूर्य उदय से तुलना करते हैं। जैसे जब सूर्योदय होता है, तब दुनिया में विराजमान अन्धकार तत्क्षण दूर हो जाता है, और इसके फल-स्वरुप अन्धकार के समस्त कार्य भी दूर हो जाते हैं। उसी प्रकार अपने यथार्थ से अनभिज्ञ हम सब अनेकानेक कल्पनाओं में पड़े हुए हैं। हम लोगों का पूरा संसार केवल कल्पनाओं और धारणाओं पर आधारित होता है। हम लोगों ने न अपने बारे में और न ही दुनियां के बारे में कभी विचार किया है, बस अविचारपूर्वक धारणाएँ उत्पन्न कर रही हैं। अज्ञान की निवृत्ति के साथ ही सब कल्पनाएँ समाप्त होने लगाती हैं और हम अपने आप को सर्वव्यापी और सर्व-धारी ब्रह्म जान लेते हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. आत्मा-ज्ञान की तुलना सूर्योदय से क्यों की गयी है ? २. आत्म -ज्ञान से मूल रूप से क्या होता है ? ३. अज्ञान काल में और तत्त्व-ज्ञान के बाद हमारे अपने बारे में कैसी धारणा और निश्चय होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 66 :

    Play Episode Listen Later Nov 10, 2021 33:01


    आत्म-बोध के 66th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें अपने ब्रह्म-ज्ञान हेतु पूरी यात्रा का सारांश बता रहे हैं। वे कहते हैं की याद करो की यह तुम्हारी आध्यात्मिक यात्रा कहाँ से प्रारम्भ हुई थी। हम सब के अंदर एक अपूर्णता थी, असुरक्षा थी, जिसकी निवृत्ति के लिए अनेकानेक आकांक्षाएं थी। इन कामनाओं के कारण अनेकों आसक्तियां, राग और द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं। इनके फलस्वरूप हम लोग और पराधीन हो जाते हैं। इस तरह से अनेकों प्रकार के मल जमा हो जाते हैं। इनसे मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति होती है। इसी लक्ष्य को ध्यान रखते हुए हमारे गुरु हमें जीवन के यथार्थ का ज्ञान देते हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन से ही ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान अग्नि की तरह होता है - जो समस्त अज्ञान और उसके कार्य को भस्मीभूत कर देता है। और एक जीव अपने जीवत्व से मुक्त होकर स्वर्ण-तुल्य साक्षात् ब्रह्म होकर स्थित हो जाता है। इस पाठ के प्रश्न : १. हमारे अंदर कौन से मलिनताएँ होती हैं ? २. कर्म के समस्त प्रेरणाओं से मुक्त होना क्यों आवश्यक होता है ? ३. श्रवण, मनन और निदिध्यासन से क्या होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 65 :

    Play Episode Listen Later Nov 9, 2021 31:07


    आत्म-बोध के 65th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञानी की दृष्टी के बारे में बताते हैं। जो तत्त्व के अज्ञानी होते हैं, वे दुनियां को सतही दृष्टि से ही देखते हैं इसलिये उतने मात्र को ही सत्य मानते हैं। विविध रूप और उनके नाम, हो हमारे शरीर से किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं वे ही अपने समझे जाते हैं, अन्य सब पराये होते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टी संकुचित होती है और वे जीवन भर छोटे एवं असुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोग ही दुनियां में समस्त हिंसा एवं पीड़ा के कारण होते हैं। इनसे विपरीत ब्रह्म-ज्ञानी वे होते हैं जिनकी ज्ञान-चक्षु खुल गयी है। उन्हें अपनी एवं अन्य सबकी आत्मा दिख रही है - जो की सत-चित स्वरुप है, और यह ही हम हैं। हम ही विविध रूप में अभिव्यक्त हैं। हम पूर्ण हैं, सर्व-व्यापी हैं, हम ही एक, अखंड ब्रह्म हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. अज्ञान-चक्षु किसको बोलते हैं ? २. ज्ञान-चक्षु किसको बोलते हैं ? ३. ज्ञान-चक्षु जब खुल जाते हैं तो दुनिया कैसी दिखाई पड़ती है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 64 :

    Play Episode Listen Later Nov 8, 2021 30:27


    आत्म-बोध के 64th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में सतत रमने के लिए ज्ञान और प्रेरणा दे रहे हैं। अगर हमारा ज्ञान सदैव एकांत में बैठ के ही संभव होता है तो समझ लीजिये की अभी जगत के मिथ्यात्व की सिद्धि नहीं हुई है। एक बार ज्ञान की स्पष्टता हो जाये उसके बाद एकांत से निकल कर विविधता पूर्ण दुनिया के मध्य में, व्यवहार में अवश्य जाना चाहिए। अज्ञान काल में हम जो कुछ भी देखते और सुनते थे उन सब के बारे में धरना यह थी की ये सब हमसे अलग स्वतंत्र वस्तुएं हैं, लेकिन अब इस नयी दृष्टी के हिसाब से जीना है। अब यह स्पष्टता से देखना है की जो कुछ भी हम इन्द्रियों से ग्रहण कर रहे हैं वो सब माया के छोले में साक्षात् सात-चित-आनंद स्वरुप ब्रह्म ही विराजमान है। जब चलते-फिरते हर जगह ब्रह्म की बुद्धि बनी रहती है तब ही ब्रह्म ज्ञान में निष्ठा हो जाती है। इस पाठ के प्रश्न : १. समस्त नाम-रूप की दुनिया का मूल तत्त्व क्या होता है? २. केवल एकांत में बैठ कर ज्ञान की प्राप्ति में क्या दोष होता है? ३. ज्ञान की चक्षु खोलने का क्या आशय होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 63 :

    Play Episode Listen Later Nov 7, 2021 33:48


    आत्म-बोध के 63rd श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की अद्वितीयता की सिद्धि का तरीका बताते हैं। ध्यान रहे की जब तक द्वैत रहता है तब तक हमारा छोटापना, अर्थात जीव-भाव बना रहता है - तब तक कितना भी ज्ञान प्राप्त करलो मुक्ति नहीं मिलती है। द्वैत का मतलब होता है की हमारी यह धरना की हमसे पृथक किसी स्वतंत्र वस्तु का अस्तित्व है। यही नहीं वह वस्तु ही हमें पूर्णता, आनंद और सुरक्षा प्रदान करेगी - इसलिए हम सब ऐसी वस्तुओं की कामना करते है, उनसे आसक्त होते है, उनपर आश्रित होते हैं। इसी को अन्तहीन संसार कहते हैं। अब अगर हमें मोक्ष की सिद्धि करनी हो तो हमें मात्र अपने से पृथक समस्त दृश्य वस्तुओं के मिथ्यात्व का निश्चय करना होगा। यह ही इस श्लोक का विषय है। जिसे पूज्य गुरूजी ने अत्यंत सरलता और स्पष्टता से समझाया है। इस पाठ के प्रश्न : १. जगत शब्द किसके लिए प्रयोग किया जाता है? २. जगत के मिथ्यात्व का क्या अर्थ होता है ? ३. अद्वैत-सिद्धि किए प्राप्त होती है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 62 :

    Play Episode Listen Later Nov 2, 2021 32:24


    आत्म-बोध के 62nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की प्रकाश स्वरूपता की विलक्षणता दिखा रहे हैं। ब्रह्म की प्रकाशरूपता दिखने के लिए कई बार सूर्य के दृष्टांत का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टांत में प्रकाश-रूपता की तो साम्यता है, लेकिन एक समस्या भी होती है, और वो है सूर्य जैसे एकदेशीय होने की संभावना। समस्त लौकिक प्रकाश एकदेशीय होते हैं, और यह साम्यता हमें इष्ट नहीं है। ब्रह्म सर्वव्यापी हैं अतः इस श्लोक में कहते हैं की ब्रह्म खुद सब चीज़ों के अंदर और बहार व्याप्त रहते हुए सबको प्रकाशित करता है। इसके लिए आचार्य एक दूसरा दृष्टांत देते हैं - जैसे एक लोहे का टुकड़ा लेलें, उसे जब हम अग्नि में डालते हैं तो अग्नि उसके अंदर और बाहर व्याप्त हो जाती है, और उसके अंदर-बाहर रहते हुए उसे प्रकाशित करती है। उसी तरह से सात-चित-आनंद स्वरुप ब्रह्म सबके अंदर और बाहर विराजमान रहते हुए सबको प्रकाशित करता है। इस पाठ के प्रश्न : १. ब्रह्म की प्रकाश-स्वरूपता दिखाने के लिए सूर्य के दृष्टांत में क्या अच्छाई, और क्या कमी है? २. ब्रह्म सबके अंदर और बाहर किस रूप में विराजमान होता है ? ३. सर्व-व्यापी प्रकाशक का कोई दृष्टांत बताए ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 61 :

    Play Episode Listen Later Nov 1, 2021 31:56


    आत्म-बोध के 61st श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। हम लोग सतत कुछ तलाश करते रहते हैं। ऐसे चीज़ की तलाश जो हमें और सुखी एवं करदे। लेकिन विडम्बना यह है, की पूरी दुनियाँ में लोग दुखी हैं, संतप्त हैं। तनाव आज कल की दुनिया की बहुत ही बड़ी समस्या बन गयी है। क्यों? क्यों की हम सबने अनेकों वस्तुएं तो प्राप्त करी हैं लेकिन ये सब नश्वर हैं। आवागमन वाली हैं। अतः जिन-जिन चीज़ों के ऊपर हम आश्रित हुए हैं वे सब एक दिन चली जाती हैं। मूल आवश्यकता एक सत्य और शाश्वत की खोज की होती है। यह ही वेदांत का विषय और प्रसाद होता है। जब भी हम कोई इच्छा करते हैं तो हमारी दृष्टी दृश्य वस्तु पर होती है। शास्त्र बोलते हैं की कहीं जाने की जरूरत नहीं है, उसी जगह और समय नित्य वस्तु वही विराजमान है - उसे जानने मात्र की जरूरत है। उसके लिए ही इस श्लोक में अनेकों लक्षणाएँ देते हैं। वो कौन है जिससे सूर्य-आदि प्रकाशित होते हैं? वो क्या है जिसे सूर्य आदि लौकिक प्रकाश कभी भी प्रकाशित नहीं कर सकते हैं? लेकिन उसके द्वारा दुनिया की सब जड़-चेतन वस्तुएँ प्रकाशित होती हैं। वो ही नित्य है, वो ही टिकाऊ है। वो हमारे अंदर विराजमान चेतन दृष्टा। चेतना ही वो दिव्य प्रकाश है। इस पाठ के प्रश्न : १. दुनियां में लोगों को क्यों दुःख और तनाव होता है? २. सूर्य आदि लौकिक प्रकाश की वस्तुओं को कौन प्रकाशित करता है? ३. हम दुनियां में हैं, की दुनियां हमारे अंदर है? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 60 :

    Play Episode Listen Later Oct 30, 2021 34:22


    आत्म-बोध के 60th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। सत्य की खोज सतत और सर्वत्र होती रहती है। प्रत्येक देश और काल में यह मानव की जिज्ञासा का विषय रहा है। सत्य की खोज करते-करते मनुष्य को अनेकानेक महत्वपूर्ण वस्तुएँ मिल जाती हैं जो की बहुत की काम की भी होती हैं, कई बार हम लोग उन महत्वपूर्ण और उपयोगी वस्तुओं को अपना भगवान् मान लेते हैं। आचार्यश्री यहाँ पर ऐसी अनेकानेक वस्तुओं के बारे में कहते हैं की जो भी दृष्ट है, ग्राह्य है, वो भले महत्वपूर्ण हो, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए की ये सब कार्यरूपा हैं। ये मूल सत्य नहीं हैं। मूल सत्य, अर्थात ब्रह्म वो है जो की अजन्मा है, किसी भी गुण और रंग आदि से युक्त नहीं होता है। समस्त दृष्ट वस्तुओं का निषेध करो और फिर अधीस्तान को जानो। इस पाठ के प्रश्न : १. क्या सत्य वस्तु को जानने के लिए कसौटी उस वस्तु की व्यावहारिक उपयोगिता है ? २. कोई व्यक्ति अणु की दुनिया से मोहित है, तो कोई गृह-नक्षत्रों से - इन दोनों व्यक्तियों में क्या समानता है ? ३. कारण भूत तत्व, अगर कार्य के समस्त धर्मों से रहित है तो उसे कैसे जाना जाता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 59 :

    Play Episode Listen Later Oct 29, 2021 32:47


    आत्म-बोध के 59th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की एक और महिमा बता रहे हैं। संसारी लोगों की दुनिया से आये हम सब की बुद्धि एक बहुत बड़े दोष से युक्त होती है - और वो है की ब्रह्म को भी अन्य किसी विषय की तरह से बाहरी, ग्राह्य एवं कर्म के प्राप्त करने योग्य वस्तु समझना। कर्म की सीमाओं की चर्चा आत्म-बोध के प्रारम्भिक श्लोकों में करी जा चुकी है। अब यहाँ ब्रह्म को व्यवहार की वस्तु की तरह से एकदेशीय समझने की संभावना का निषेध किया जा रहा रहा है। जो वस्तु भी एकदेशीय होती है वो सीमित एवं संकुचित होती है - और ब्रह्म ऐसा नहीं होता है। ब्रह्म व्यवहार की समस्त वस्तुओं, व्यक्तोयों आदि को व्याप्त करता है। वो सबका सत्य होता है, सबको आत्मवान करता है। ब्रह्म ही सबको सत्तू, स्फूर्ति एवं प्रियता प्रदान करता है। आचार्य कहते हैं की जैसे दूध में मक्खन व्याप्त होता है, उसी तरह से जगत के कण-कण में ब्रह्म व्याप्त होता है, अर्थात ब्रह्म-ज्ञान से सब कुछ प्राप्त हो जाता है। इस पाठ के प्रश्न : १. संसारी वस्तुओं की अपेक्षा ब्रह्म प्राप्ति की क्या विलक्षणता होती है? २. किसी भी बाहरी वस्तु में क्या कमी होती है ? ३. सर्व-व्यापी ब्रह्म की प्राप्ति में क्या कर्म का कोई रोल होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 58 :

    Play Episode Listen Later Oct 27, 2021 31:32


    आत्म-बोध के 58th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। अपने मन को भी ब्रह्म में निष्ठ करने के लिए वे चर्चा कर रहे हैं - आनन्द की। हम लोगों की बुद्धि में ब्रह्म-ज्ञान की स्पष्टता होनी चाहिए, और मन में ब्रह्म-ज्ञान हेतु निष्ठा। हम सबका मन, भले वो छोटा व्यक्ति हो या बड़ा, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, देसी हो या विदेशी, संसारी हो या साधक - सब के सब केवल अपनी-अपनी धारणाओं के अनुरूप आनन्द की प्राप्ति की चेष्टाओं में लगे हुए हैं। और हम सबके प्रयासों से हमें मात्र एक क्षण का आनन्द मिलता है, और उसी में अपने आप को धन्य समझते हैं। यहाँ आचार्य कहते हैं की अपने मन को समझाओ की ' हे मन, जब ज्ञानीजनों के द्वारा बताया गया तुम्हारे लिए आनंद का सागर हो जाने का विकल्प उपलब्ध है, तो तुम अज्ञानियों के पथ पर चलते हुए एक क्षण मात्र के लिए आनंद की एक बून्द क्यों प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हो। विवेकी बनो, और अपनी सोच ऊंची करो। सीधे ब्रह्म-ज्ञान का संकल्प करो। वो तो अत्यंत निकट भी है - वो तो हमारी आत्मा ही है। बस अपने को यथावत जानने के लिए समर्पित हो जाओ। हमारी बुद्धि ने तो वो जान भी लिया है, अब मात्र अपनी बुद्धि के द्वारा बताये मार्ग पर चलो। इस पाठ के प्रश्न : १. प्रत्येक मनुष्य जीवन में अंततः क्या प्राप्त करना चाहता है ? २. विषयानन्द क्षणिक क्यों होता है ? ३. अखण्डानन्द की प्राप्ति का क्या आशय होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 57 :

    Play Episode Listen Later Oct 26, 2021 29:55


    आत्म-बोध के 57th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा, उसके एक प्रसिद्द लक्षण के द्वारा बताते हैं। आचार्य कह रहे हैं, की हम सब ने ब्रह्म के बारे में अनेकों से सुना होगा, लेकिन हमें सदैव शास्त्रोक्त लक्षण को ही प्रधानता देनी चाहिए। ब्रह्म वो है जो की अतत-व्यावृत्ति लक्षण के द्वारा वेदांत शास्त्रों में लक्षित किया जाता है। पू स्वामीजी ने बताया के ब्रह्म को लक्षित करने के तीन प्रधान लक्षण होते हैं, उनमे यह लक्षण निषेध प्रधान होता है। अतः हमें निषेध करने के बाद ही जो अवशिष्ट होता है उसे ब्रह्म की तरह से जानना चाहिए। जो शेष रहता है वो कल्पना का विषय नहीं होना चाहिए। वो अद्वय और अखंड आनन्द होता है। आनंद का रहस्य भी पू स्वामीजी ने बताया। इस पाठ के प्रश्न : १. ब्रह्म को लक्षित करने के कौन से तीन प्रकार के लक्षण होते हैं ? २. अतद-व्यावृत्ति को समझाएं ? ३. आनंद की अनुभूति कब और कैसे होती है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 56 :

    Play Episode Listen Later Oct 25, 2021 30:05


    आत्म-बोध के 56th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा उसका वास्तविक अर्थ बता रहे हैं। श्लोक का अंतिम पद समान है - की उसको ही ब्रह्म जानो। किसको? जो श्लोक में पूर्ण तत्व है। जो सचिदानन्द स्वरुप है। वो ही तीनों दिशाओं में अपनी माया से विविध रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। तीन दिशाएं मतलब - ऊपर, नीचे और पृथ्वी के ऊपर। जो स्वतः अनंत है, जिसके दृष्टी से कोई द्वैत नहीं होता है। वह ही ब्रह्म है - हे मन अपने समस्त विक्षेप त्यागो और मात्र उसमें अपना ध्यान लगाओ। ब्रह्म के अलावा पूरे ब्रह्माण्ड में और कुछ भी नहीं है। इस पाठ के प्रश्न : १. ब्रह्म के विविध लक्षणों का क्या प्रयोजन है ? २. क्या सबके तत्त्व देखने के बाद व्यवहार संभव होता है ? ३. सच्चिदानन्द शब्द को संक्षेप में समझाएं ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 55 :

    Play Episode Listen Later Oct 23, 2021 32:13


    आत्म-बोध के 55th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की कुछ और महिमा बता रहे हैं। पू गुरूजी यहाँ पर बताते हैं की प्रत्येक मनुष्य में एक दिमाग और एक दिल होता है। वेदान्त में पहले दिमाग को प्रबुद्ध किया जाता है और फिर अपनी ही बुद्धि से अपने ही दिल में ज्ञान उतारा जाता है। यह पढ़ाओ सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसके बाद ही ज्ञान में निष्ठा होती है, और मुक्ति केवल ज्ञान में निष्ठा के बाद ही होती है। तो यहाँ इस श्लोक में आचार्य कहते हैं की अपनी ही बुद्धि से अपने दिल को बताना चाहिए की हे मन ब्रह्म वो होता है जो सबसे दर्शनीय है, जिसको देखने के बाद फिर कुछ दर्शन योग्य नहीं बचता है। यह वो है जो हो जाने के बाद अन्य कुछ बनाने की संभावना नहीं रहती है और जिसको जानने के बाद अन्य कोई ज्ञेय वस्तु नहीं रहती है। इस पाठ के प्रश्न : १. ब्रह्म की महिमा का गुणगान का क्या प्रयोजन है ? २. जब हमलोग किसी दर्शनीय वस्तु का दर्शन करते हैं तो उसके मूल रूप से क्या प्रेरणा होती है ? ३. ब्रह्म को सर्वोत्कृष्ट ज्ञेय वस्तु क्यों कहा गया है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 54 :

    Play Episode Listen Later Oct 22, 2021 32:30


    आत्म-बोध के 54th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। ये श्लोक उनके लिए भी हो सकते हैं जो अभी पूरे दिल से ब्रह्म-ज्ञान के लिए समर्पित नहीं हुए हैं और अभी भी बहिर्मुख हैं, अर्थात किसी न किसी दुनिया की वस्तुओं से तृप्त होना चाहते हैं। वे कहते हैं की उसे ब्रह्म जानो जिसके 'लाभ' के बाद अन्य कोई लाभ की प्राप्ति शेष नहीं बचती है। जिसके सुख के बाद अन्य कोई सुख की प्राप्ति की संभावना शेष नहीं होती है। और तीसरी बात कहते हैं जिसके ज्ञान के बाद दूसरा कोई ज्ञान का विषय ही नहीं होता है। इस पाठ के प्रश्न : १. इस श्लोक का अधिकारी कौन है ? २. अपने दिल को पूर्ण रूप से ब्रह्म में लगाने के लिए क्या करना चाहिए ? ३. सबसे बड़ा लाभ जीवन में कौन सा होगा ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 53 :

    Play Episode Listen Later Oct 21, 2021 30:38


    आत्म-बोध के 53rd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें जीवन्मुक्त के अंतिम क्षण हैं - कि वे अंतिम क्षण में ब्रह्म में कैसे लीं होते हैं। पहले तो यह बात स्पष्ट करनी चाहिए की ब्रह्म-ज्ञानी के लिए शरीर के मरने से ब्रह्म में लीन होने का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। ईश्वर के अवतार में भी यह सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है की भगवान् शरीर के रहते-रहते पूर्ण रूप से मुक्त होते हैं। पिछले श्लोक में भी यह बात स्पष्ट हो गयी थी की ब्रह्म-ज्ञानी उपाधि में स्थित रहते हुए भी उपाधि के धर्मों से अलिप्त होते हैं। तात-तवं-ऐसी महावाक्य के शोधन के बाद वे अपने को मात्र चेतन तत्त्व देखते हैं और ईश्वर के भी तत्त्व को यह ही देखते हैं। अब चेतन चेतन में कैसे लीन होता है। केवल नाम मात्र के लिए ही वे लीन होते हैं। वस्तुतः जहाँ उन्होने अपनी उपाधि के धर्मों का निषेध किया उसी क्षण वे मानो ब्रह्म हो गए। उनका ब्रह्म में लीन होना कुछ ऐसा होता है - जैसे जल, जल में विलीन होता है, जैसे आकाश, आकाश में लीन होता है, जैसे तेज, तेज में विलीन होता है। इस पाठ के प्रश्न : १. जीवन्मुक्त के वास्तविक मृत्यु कब होती है ? २. क्या जीवन्मुक्त जब शरीर त्यागता है तब उसकी वास्तविक मृत्यु होती है ? ३. जब छोटा जीव, एक विशाल ब्रह्म से एक होता है तब वो घटना कैसी होती है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 52 :

    Play Episode Listen Later Oct 20, 2021 34:56


    आत्म-बोध के 52nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें जीवन्मुक्त के कुछ और लक्षण देते हैं। इस श्लोक की दो लाइन में वे दो महत्वपूर्ण लक्षण देते हैं। ये दोनों लक्षण ऐसे हैं जिनमे अनेकानेक वेदान्त जिज्ञासु फसें रहते हैं और इनसे ऊपर नहीं उठ पाते हैं, और इनके चलते अपने गुरु से प्राप्त दिव्य ज्ञान को चौपट कर देते हैं। अर्थात ये दो ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं की हम ज्ञान प्राप्ति के बाद भी संसारी बने रहते हैं। पहली लाइन में आचार्य कहते हैं तत्त्व-ज्ञानी उपाधि में रहते हुए भी उपाधि के समस्त धर्म से अछूते रहते हैं - जैसे आकाश। दूसरी लाइन में कहते हैं की वे सर्ववित हैं लेकिन ज्ञान के प्रदर्शन की कोई प्रेरणा नहीं होती है। उनके लिए ज्ञान मूल रूप से उनकी मुक्ति का साधन था - न की अज्ञानी लोगों से ज्ञानी का प्रमाण पात्र की प्राप्ति का माध्यम। वे तो एक शीतल पवन जैसे होते हैं जो की असंग और अलिप्त रहते हुए प्रवाहित होती रहती है। इस पाठ के प्रश्न : १. शरीर में रहते हुए क्या ब्रह्मज्ञानी को बीमारी / बुढ़ापा प्रभावित करता है की नहीं ? २. भूख, प्यास, सुख, दुःख आदि से ज्ञानी लोग कैसे अप्रभावित रहते हैं ? ३. अगर कोई ज्ञानी है तो क्या उनके अंदर दूसरों को ज्ञान देने की प्रेरणा नहीं होती है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 51 :

    Play Episode Listen Later Oct 19, 2021 30:32


    आत्म-बोध के 51st श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के कुछ और लक्षण देते हैं। वे कहते हैं की जीवन्मुक्त की जीवन की यात्रा में सर्वप्रथम यह जाना की जो भी बाहरी - अर्थात इन्द्रियग्राह्य वस्तुएँ होती हैं वे सब अनित्य होती हैं। इनके ऊपर निर्भर होना इनसे आसक्ति हो जाना ही समस्त दुःख का मूल होता है। इसलिए वेदान्त के अधिकारी में वैराग्य होना चाहिए। भगवान् शंकराचार्य भी आग्रह पूर्वक कहते हैं की बिना संन्यास के ब्रह्म-विद्या प्राप्त नहीं हो सकती है। जब हम सभी बाह्य चीज़ों से आसक्ति दूर कर देते हैं, तभी आत्म-ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। वो आत्मा को नित्य जान जाता है। वो ही सत्य है, शास्वत है, आनन्दस्वरूप है - वो ही हम हैं। ऐसा व्यक्ति ही वास्तविक रूप से स्वस्थ है - जैसे एक घड़े के अंदर दीपक स्थित है और खुद भी प्रकाशित हो रहा है और समस्त बाहरी वस्तुओं को भी प्रकाशित कर रहा है। इस पाठ के प्रश्न : १. बाहरी वस्तुओं में सुखानुभूति कैसे होती है ? २. बाहरी और अंदर किस दृष्टी से होता है ? ३. मन में कुछ आसक्तियाँ बनी रहें - तो क्या हम आत्मबोध प्राप्त कर सकते हैं की नहीं ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 50 :

    Play Episode Listen Later Oct 18, 2021 32:45


    आत्म-बोध के 50th श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के जीवन की यात्रा रामायण के दृष्टांत से समझते हैं। रामायण की जो मूल शिक्षा है वो इन जीवन्मुक्त ने समझ ली एवं रामजी ने अपने जीवन से जो आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करी है वो भी प्राप्त कर ली है। रामायण में प्रत्येक मनुष्य के जीवन की आत्मा-कथा बताई गयी है। जहाँ पहले उसके मन की शांति गायब हो जाती है और उसे एक विशाल समुद्र के परे छुपा के रखा गया है, और उसकी अनेकों राक्षस लोग रक्षा करते हैं। ये सागर हमारा मोह है और जो राक्षस हमारी शांति की रक्षा करते हैं वो - राग और द्वेष हैं। अतः जो व्यक्ति पहले गुरु मुख से शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके अपना मोह दूर करते हैं और अपने राग और द्वेष को दूर कर देते हैं, वे ही अपने सीता रुपी शांति से एक होकर शांति से अयोध्या में विराजते हैं। यह रामायण की भषा में एक जीवन्मुक्त की यात्रा होती है। इस पाठ के प्रश्न : १. आध्यात्मिक रामायण में सीताजी किसका प्रतीक हैं ? २. शांति रूपा सीताजी को कहाँ छुपा के रखा गया है, और हम वहां तक कैसे पहुंचें ? ३. राग और द्वेष रुपी राक्षस सीताजी रुपी शांति की कैसे रक्षा करते हैं ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 49 :

    Play Episode Listen Later Oct 17, 2021 34:56


    आत्म-बोध के 49th श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के बारे में बताते हैं। जीवन्मुक्त उसको कहते हैं जो शरीर के रहते-रहते मुक्त हो गया है। जिसने यहीं पर अपने आप को ब्रह्म जान लिया है। हम सब मूल रूप से ब्रह्म थे, और सदैव रहेंगे - अतः अपनी ब्रह्मस्वरूपता में जगाने के लिए कोई कर्म नहीं करने पड़ते हैं, केवल अपने मोह और अज्ञान को दूर करा जाता है। जीवन्मुक्त होना ही जीवन का मूल लक्ष्य होता है। इसके लिए पहले वेदान्त शास्त्र का विद्वान होना चाहिए। इसी से हमें वो मोक्षदायी विवेक प्राप्त होता है, की हम अपनी उपाधियों से विलक्षण एक सत्चिदानन्द स्वरुप सत्ता हैं। फिर इसी ज्ञान में रमते हुए अपने समस्त संशय और विपर्यय दूर होते ही अपने स्वरुप में निष्ठा प्राप्त हो जाती है - माानो एक कीट अब भ्रमर बन गया हो। इस पाठ के प्रश्न : १. जीवन को मूल लक्ष्य क्या होता है? २. मुक्ति क्या जीतेजी होती है अथवा मरणोपरांत ? ३. जीव को ब्रह्म होने के लिए क्या करना होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 48 :

    Play Episode Listen Later Oct 16, 2021 32:42


    आत्म-बोध के 48th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्मा के विज्ञानं एक और लक्षण देते हैं - और वो है अद्वैत सिद्धि। विज्ञान से अद्वैत सिद्धि होती है, यह ही मुक्ति है। प्रारम्भ होता है ज्ञान से - जब हम अपने शास्त्र और गुरु से जीवन का सत्य जानते हैं। ज्ञान परोक्ष होता है - अर्थात यह सुनी हुई बात है, न की देखी हुई। विज्ञान देखी हुई बात हो जाती है। इसमें अद्वैत सिद्धि हो जाती है। द्वैत तब तक होता है जब तक हम लोग जगत को अलग देखते हैं। यहाँ पर गुरूजी अत्यंत सरल ढंग से जगत का रहस्य बताते हैं जिसके फल स्वरुप हम लोग अद्वैत का साक्षात्कार कर सकते हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. अद्वैत सिद्धि का क्या अर्थ होता है ? २. जगत किसको कहते हैं ? ३. ज्ञान और विज्ञानं का क्या अर्थ होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 47 :

    Play Episode Listen Later Oct 15, 2021 31:20


    वक्ता : पूज्य स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीजी आत्म-बोध के 47th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्मा के विज्ञानं अर्थात आत्म-साक्षात्कार के दो महत्वपूर्ण लक्षण दिखाते हैं। जब हम अपने शरीर और मन आदि उपाधि के अपने को अलग देख रहे हैं तो हम और हमारी दुनिया दोनों अलग दिख रहे होते हैं। पहला लक्षण है - कि हम पूरी दुनियाँ को अपने अन्दर देखते हैं। हम अधिष्ठान हैं और सब नाम-रूप हमारे अन्दर विद्यमान हैं - जैसे सागर में अनंत लहरें। नाम-रूप सब नश्वर हैं लेकिन हम उन्हें रहने हेतु सत्ता प्रदान कर रहे हैं। दुनिया हमारे अन्दर एक स्वप्न की तरह से है। जैसे स्वप्न से जगाने के बाद हम स्वप्न को अपने अंदर मन का विलास मात्र देखते हैं वैसे ही अब यह पूरा ब्रह्माण्ड हमारे अंदर दिखाई दे रहा है। दूसरा लक्षण - हम सब की आत्मा हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. वेदान्त में योगी का अर्थ क्या होता है, और सम्यक विज्ञानवान योगी कौन होता है ? २. ये दुनिया हमारे अंदर है - इसका अर्थ समझाएं ? ३. हम सबके अंदर किस रूप में विराजमान होए हैं ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 46 :

    Play Episode Listen Later Oct 14, 2021 30:37


    वक्ता : पूज्य स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीजी आत्म-बोध के 46th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्म-साक्षात्कार अर्थात आत्म-अनुभव का क्या चमत्कारी प्रभाव होता है वो बताते हैं। सबसे पहले तो आत्मानुभव के बारे में पू गुरूजी ने यह स्पष्ट किया की यह साक्षात्कार जीव-भाव बाधित करने के बाद ही होता है। अगर हम रस्सी को सर्प समझते ही रहेंगें तब तक उसके अधिष्ठान की असलियत का कभी भी पता नहीं चल सकता है। जब कल्पना रहित अर्थात विरक्त अर्थात सन्यस्त मन से वेदांत चिंतन करते हैं तो पहले बुद्धि को संतुष्ट करें, फिर ज्ञान को हृदयांवित करें - तभी अनुभव होता है। जब अनुभव होता है तब उसी क्षण सब ग्रंथियों का भेदन हो जाता है - अहं और मम सब जड़ से समाप्त हो जाते हैं। यह वैसे ही होता है जैसे एक दिशाओं से भ्रमित व्यक्ति को एक दिशा मिलते ही सभी दिशाओं का पता चल जाता है। इस पाठ के प्रश्न : १. आत्मानुभव कब होता है ? २. जीव-भाव एवं उसके संसार से मोह त्यागना क्यों आवश्यक है? ३. आत्मानुभव के फल-स्वरुप और क्या-क्या होता है? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 45 :

    Play Episode Listen Later Oct 12, 2021 34:41


    आत्म-बोध के 45th श्लोक में आचार्यश्री एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। यह विषय है की आत्मा का दर्शन और उसमे निष्ठा कब होगी। क्या हम सदैव आत्मा का ध्यान करें? आचार्य बोलते हैं कि नहीं, आत्मा का नहीं 'जीव' पर ध्यान दो। जीव किसको कहते हैं? ये कैसे उत्पन्न होता है? इसकी संकुचिताएँ कैसे आती हैं, और कैसे जाती हैं? वे कहते हैं की वस्तुतः जीव आत्मा को ठीक से न जानने के कारण एक भ्रान्ति मात्र होती है, और भ्रान्ति की समाप्ति से यह भी दूर हो जाता है, और उसके स्थान पर एक अनन्त सत्ता विद्यमान होती है - वो ब्रह्म है। इस पाठ के प्रश्न : १. हमें ध्यान में पहले आत्म-चिंतन करना चाहिए अथवा जीव पर विचार? २. जीव किसको बोलते हैं? ३. जीव-भाव की समाप्ति कैसे होती है? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 44 :

    Play Episode Listen Later Oct 11, 2021 29:49


    आत्म-बोध के 44th श्लोक में आचार्यश्री हमें एक प्रचलित प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। प्रश्न है - कि, महाराज हमने इतनी साधना करि, इतनी पढ़ाई करी लेकिन अभी तक हमें आत्मा की प्राप्ति नहीं हुई है, कब होगी? ऐसे लोगों को आचार्य कहते है की आत्मा की प्राप्ति किसी दिव्य अज्ञात तत्व की प्राप्ति नहीं होती है। आत्मा तो मैं को बोलते हैं और वो तो प्राप्त ही है। समस्या तो अपने आप को ठीक से न जानने की है। न जानना ही अज्ञान ही - और अज्ञान के दो रूप होते हैं - न जानना और गलत जानना। वेदान्त शास्त्र इन्ही दोनों को दूर कर देते हैं और उसके बाद हमें मनो प्राप्त हो जाती है - जैसे गले में पड़ा हुआ माला। इस पाठ के प्रश्न : १. क्या आत्मा की प्राप्ति किसी लौकिक वास्तु की तरह से होती है? २. मोक्ष की अगर प्राप्ति होती है - तो क्या मोक्ष जा भी सकता है? ३. अज्ञान के कौन से दो पहलु होते हैं ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 43 :

    Play Episode Listen Later Oct 10, 2021 33:41


    आत्म-बोध के 43rd श्लोक में आचार्यश्री हमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्रचलित प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। शास्त्र के ज्ञान की क्या आवश्यकता होती है ? क्या हम लोग सीधे ध्यान और समाधी का अभ्यास नहीं कर सकते हैं? इसका उत्तर एक दृष्टांत से देते हैं - जैसे सूर्य के उदय से पूर्व उनका अरुण नामक सारथि अपना रथ लेकर आता है और ज़्यादातर अन्धकार को दूर कर देता है और फिर सूर्य देवता उदित होते हैं। उसी प्रकार से हमें पहले वेदान्त का अध्यन करकेअपने अन्दर अनेकानेक मोह दूर करने होते हैं, तत्पश्च्यात अज्ञान को दूर करते हैं - जिससे आत्मा का अपरोक्ष-साक्षात्कार होता है। इस पाठ के प्रश्न : १. सूर्य उदय से पूर्व अरुण का आना क्या दिखाता है ? २. वेदांत का अध्यन अरुण से क्यों तुल्य है ? ३. वेदांत का अध्यन न करने से क्या नुक्सान होता है?

    Atma-Bodha Lesson # 42 :

    Play Episode Listen Later Oct 9, 2021 35:31


    आत्म-बोध के 42nd श्लोक में आचार्यश्री हमें निदिध्यासन रूपी ध्यान की प्रक्रिया को एक दृष्टांत से समझते हैं। वो दृष्टांत है अरणी का। किसी यज्ञ में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए प्राचीन तरीका होता है - दो लकड़ियों के घर्षण और मंथन का। लकड़ियों के घर्षण से अग्नि प्रज्वलित होती है जिससे यज्ञ आदि कार्य संपन्न किये जाते हैं। दो लकड़ियां ऊपर और नीचे होती है और एक मथानी बीच में खड़ी होती है - जिसे किसी रस्सी आदि से अथवा हाथ से मथा जाता है। इसमें नीचे की लकड़ी को जीव भाव समझें और ऊपर को अपना ब्रह्म-स्वरूपता का लक्ष्य। बीच की खड़ी लकड़ी को वेदांत ज्ञान समझें। मंथन से जो ज्ञान रुपी अग्नि निकलती है वो हमारे अज्ञान रुपी संसार के ईंधन को जला देती है। इस पाठ के प्रश्न : १. अरणी के दृष्टांत को समझाएँ ? २. जीव, ब्रह्म-भाव को कैसे प्राप्त करता है? ३. संसार का ईंधन क्या होता है ? Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com

    Atma-Bodha Lesson # 41 :

    Play Episode Listen Later Oct 8, 2021 30:34


    आत्म-बोध के 41st श्लोक में आचार्यश्री हमें पिछले श्लोक में बताये गए आत्मा-अभ्यास के विषय पर एक और महत्वपूर्ण दृष्टिकोण से प्रकाश डालते हैं। यह बिंदु है - त्रिपुटी का। त्रिपुटी के अन्दर ही हम सब का पूरा संसार चलता है। जबतक त्रिपुटी है तब तक संसार और संस्करण चलता रहता है। त्रिपुटी बोलते हैं ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय के भेद को। इस बात पर ध्यान दीजिये - की हम लोगों के समस्त अच्छे-बुरे व्यवहार सभी इस त्रिपुटी के अंदर ही चलते हैं। फिर भले ज्ञाता हो, अथवा दृष्टा हो, श्रोता हो आदि। देखने वाला अलग है, देखने वाली वस्तु अलग है, और इन दोनों के संस्पर्श से उत्पन्न दर्शन अलग है। यहाँ आचार्य बोलते हैं की परमात्मा में ये तीनों नहीं होते हैं। ये तीनों मूल रूप से चिदानंद रूप ही हैं - जो एक है, अखण्ड है, और जो स्वतः प्रकाशित होती है। इस पाठ के प्रश्न : १. त्रिपुटी किसे कहते हैं? २. त्रिपुटी का अस्तित्व क्यों आता है? ३. परमात्मा में त्रिपुटी क्यों नहीं होती है?

    Atma-Bodha Lesson # 40 :

    Play Episode Listen Later Oct 7, 2021 35:39


    आत्म-बोध के 40th श्लोक में आचार्यश्री हमें पिछले श्लोक में बताये गए एक बिंदु पर और गहराई से प्रकाश डालते हैं। वो बिंदु है - दृश्य का आत्मा में प्रविलापन। यह प्रविलापन कैसे किया जाता है - वह इस श्लोक में बताया जा रहा है। समस्त दृश्य विविध विषयों से बना है, और सभी विषयों में दो पहलु होते हैं, एक उसका विशिष्ट नाम-रूप और दूसरा उसका तत्त्व। इनकी दोनों को गहराई से समझा जाता है। इसके विवेक से ही प्रविलापन संभव होता है, और एक अखंड तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। इस पाठ के प्रश्न : १. दृश्य जगत का प्रविलापन कैसे होता है? २. प्रत्येक दृश्य विषय में कौन से दो पहलु होते हैं? ३. रूप आदि को मिथ्या बोलने का क्या आशय होता है?

    Atma-Bodha Lesson # 39 :

    Play Episode Listen Later Oct 6, 2021 36:51


    आत्म-बोध के 39th श्लोक में आचार्यश्री हमें निदिध्यासन रुपी ध्यान का स्वरुप बता रहे हैं। वे कहते हैं की जिस एकांत वास में रह कर हमने पिछले श्लोक में ध्यान करने की बात कही थी, उसी ध्यान में क्या करना होता है। वे कहते हैं की जो हमें ये समस्त द्रश्य जगत दिख रहा है, जिसमे ही हम सब अपनी खुशियां ढूंढते रहते हैं, अर्थात हो हमारे लिए अभी तब सत्य था, उसके ऊपर ध्यान करें और उसके तत्त्व पर विचार करें - और यह देखें की दृश्य जगत का अस्तित्व और महत्त्व सब दृष्टा के कारण ही होता है। अतः दृश्य को आत्मा में विलीन करें - इसको प्रविलापन कहते हैं। फिर अपने आप को सर्वात्मा, अखण्ड और अनंत देखें - इसकी तीव्र भावना उत्पन्न करें। इस पाठ के प्रश्न : १. दृश्य जगत का कारण क्या और कौन होता है? २. दृश्य जगत दृष्टा के ऊपर कैसे आश्रित होता है? ३. जब दृश्य जगत दृष्टा में विलीन हो जाता है तो आत्मा का कैसा स्वरुप दिखता है?

    Atma-Bodha Lesson # 38 :

    Play Episode Listen Later Oct 5, 2021 33:07


    आत्म-बोध के 38th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्म-अभ्यास के लिए एक नया आयाम प्रदान कर रहे हैं - वो है ध्यान और समाधी का अभ्यास। ध्यान रहे की हमें यह  साधना पहले नहीं प्रदान करी गयी, बल्कि जब हमें अहम् ब्रहास्मि का स्पष्ट ज्ञान हो गया तब ही प्रदान करी जा रही है। जब ज्ञान हुआ ही नहीं है तो किसपे ध्यान करें? इसलिए लोग ध्यान के नाम पर केवल मन को शांत करने का प्रयास करते हैं, वो वस्तुतः ठीक ध्यान नहीं है। ध्यान परमात्मा का, आत्मा का, सत्य का करना चाहिए। एकान्त में बैठकर अंतर्मुख होकर आत्मा के तरफ ध्यान मोड़ें और इसे अनंत और एक, अखंड देखें। अर्थात आत्मा को स्पष्ट रूप से ब्रह्म देखें - और इसके प्रति प्रगाढ़ महत्त्व की बुद्धि उत्पन्न करें। जिसके प्रति महत्त्व की बुद्धि होती है उसके प्रति ही भावना जगती है।  इस पाठ के प्रश्न :  १. ध्यान का उचित समय कौन सा होता है - ज्ञान के पूर्व या बाद में ?  २. ध्यान के लिए एकान्त-वास क्यों करना चाहिए?  ३. भावना उत्पन्न करना क्या होता है?

    Atma-Bodha Lesson # 37 :

    Play Episode Listen Later Oct 3, 2021 34:37


    आत्म-बोध के 37th श्लोक में भी आचार्यश्री हमें आत्म-अभ्यास क्या है और इससे क्या होता है वो बताते हैं। आत्मा के वास्तविक स्वरुप का पूरे प्रमाण पूर्वक अर्थात शास्त्रोक्त ज्ञान उत्पन्न करके, अपने जीव-भाव को कल्पित जानकर पूर्णतः बाधित करके, अपनी वास्तविकता की पहले तो अपरोक्ष स्पष्टता उत्पन्न करके - उसी में जगे रहना और रमना चाहिए। ये ही अहम्-ब्रह्मास्मि की वृत्ति है - अर्थात हम ही ब्रह्म है। इस निश्चय को सतत अभ्यास के द्वारा हृदयांवित करना चाहिए। अर्थात - ये सहज और अत्यंत प्रिय हो जाये। जब ऐसा हो जाता है, तब अविद्या और ताड-जनित विक्षेप जड़ से ऐसे समाप्त हो जाते हैं, जैसे दवाई से रोग। इस पाठ के प्रश्न : १. आत्म-अभ्यास किसे कहते हैं? २. आत्म-अभ्यास में क्या करना होता है? ३. आत्म-अभ्यास का परिणाम क्या होता है?

    Atma-Bodha Lesson # 36 :

    Play Episode Listen Later Oct 2, 2021 31:33


    आत्म-बोध के 36th श्लोक में भी आचार्यश्री हमें आत्म-अभ्यास के लिए कुछ और लक्षण प्रदान कर रहे हैं। ध्यान रहे ये लक्षण उन्ही साधकों के लिए हैं जिन्होंने अपने जीव-भाव को बाधित कर दिया है। सर्प के निषेध के बाद ही रज्जु का ज्ञान होता है, और ज्ञान के बाद उस ज्ञान में निष्ठा की साधना होती है। इस श्लोक में आचार्य कह रहे हैं दृढ़ता से इस बात को देखो और उसके प्रति भावना उत्पन्न करो की हम नित्यमुक्त हैं, नित्यशुद्ध हैं, एक हैं, अखण्डानन्द हैं अद्वय हैं। हम सत्यम, ज्ञानं, अनन्तं ब्रह्म हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. निदिध्यासन का अधिकारी कौन होता है? २. निदिध्यासन में अगर जीव-भाव बना रहता है तो क्या होगा? ३. आत्मा किस से मुक्त होती है?

    Atma-Bodha Lesson # 35 :

    Play Episode Listen Later Oct 1, 2021 31:25


    आत्म-बोध के 35th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्म-चिन्तन रुपी अभ्यास के लिए कुछ और लक्षण प्रदान कर रहे हैं। ये लक्षण उन्ही साधकों के लिए हैं जिसने आत्मा के ऊपर से अनात्मा के धर्मों का अपवाद कर दिया है। अगर नहीं तो ये सब कल्पना मात्र हो जायेगा जिसका कोई लाभ नहीं होगा। जब हमने देह आदि से अपने को मुक्त देख लिया है, तब हम मात्र चिन्मयी सत्ता होते हैं, जो की आकाश की तरह से सबके अंदर-बाहर होता है। ये सैदव ऐसा ही था और रहेगा अतः अच्युत है. सबके प्रति सम, शुद्ध, असंग और निर्मल है। यह ही हम हैं। इस पाठ के प्रश्न : १. निदिध्यासन क्या निषेध से पहले भी हो सकता है, अगर नहीं तो क्यों नहीं ? २. अंदर-बाहिर किस दृष्टी से होता है? ३. अच्युत का क्या अर्थ है?

    Atma-Bodha Lesson # 34 :

    Play Episode Listen Later Sep 30, 2021 35:20


    आत्म-बोध के 34th श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की गुरुमुख से प्रामाणिक अर्थात वेदांत-प्रदीपादित आत्म-बोध प्राप्त करने के बाद उसे अत्यंत तीव्र भावना के साथ आत्मसात करना होता है। अपनी अभी तक की अस्मिता सम्बंधित विपरीत धारणाओं को निराधार समझते हुए उनका निषेध करते हुए, अपनी नई पहचान बहुत ही तीव्रता से हृदयांवित करना चाहिए। ये ध्यान रहे की यहाँ मात्र शब्द बोलने से कुछ नहीं होगा, इसलिए पहले एक-एक शब्द का अर्थ अच्छी तरह से देखें और फिर उस अर्थ की आवृत्ति करें। इस पाठ के प्रश्न : १. स्पष्ट ज्ञान उत्पन्न होने के बाद उसकी तीव्र भावना उत्पन्न करने का क्या प्रयोजन होता ? २. ध्यान में विचारों को शांत करें की अपनी वास्तिकता के ज्ञान की भावना लाएं? ३. विपरीत अस्मिता क्यों और कैसे उत्पन्न होती है ?

    Atma-Bodha Lesson # 33 :

    Play Episode Listen Later Sep 28, 2021 33:50


    आत्म-बोध के 33rd श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की जैसे हम लोगों ने पिछले श्लोक में देखा की अपने आप को शरीर और इन्द्रियों से अलग देखने के कारण उनके धर्म भी हमारे नहीं रहते हैं, उसी प्रकार से अपने को मन से पृथक देखने के कारण मन के भी विकार हमारे नहीं होते हैं। मन के विकार, जैसे दुःख, राग, द्वेष, भय आदि। हम मन नहीं हैं - इस विषय में हम लोगों ने अनेकों युक्तियाँ देखि और अनुभूति भी है, और अब आचार्यश्री यहाँ श्रुति प्रमाण भी देते हैं, की, अप्राणो अमनः शुभ्र - की आत्मा निर्मल और चिन्मयी है, तथा उसमे कोई मन अथवा प्राण नहीं है। इस पाठ के प्रश्न : १. अनात्मा के निषेध का व्यावहारिक प्रमाण क्या है? २. दुःख, राग आदि से कैसे पूर्ण रूप से मुक्त होते हैं? ३. क्या प्रिय लोगों से राग अनुचित होता है?

    Atma-Bodha Lesson # 32 :

    Play Episode Listen Later Sep 27, 2021 29:46


    आत्म-बोध के 32nd श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की पिछले श्लोक में हमने देखा की आत्मा के ऊपर से आत्मा का जो अध्यारोप हुआ है हमें मात्र उसका निषेध करना होता है - और मुक्ति प्राप्त हो जाती है। अब यहाँ इस श्लोक में कह रहे हैं की अनात्मा के निषेध के साथ-साथ अभी तक जो इसके साथ सम्बन्ध रहा था उसके कारण अनात्मा के अनेकानेक धर्म हमारे दिल और दिमाग में विद्यमान होते हैं - उन्हें भी दूर करना होता है। इस श्लोक में देह और इन्द्रिय की चर्चा करते हैं। जब हम देह नहीं हैं तब इसके विविध धर्म भी हमारे नहीं हैं। देह के धर्म - अर्थात जन्म, वृद्धि, बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु। इन सब की खुशियां और पीड़ाएँ हम लोगों के दिलोदिमाग में बैठ गयी हैं। हमें यह देखना चाहिए की ये सब हमारे नहीं हैं। किसी का जन्म जरूर होता है, लेकिन हमारा नहीं। अतः हमें इन दोनों को बहुत स्पष्टता से देखना होगा। उसी तरह से हम इन्द्रियां नहीं है, अतः विषयों के साथ हमारा कोई भी संग नहीं है - यह विषयों के मध्य में रहते हुए देखना होगा। इस पाठ के प्रश्न : १. अनात्मा के समग्र निषेध के लिए उसके धर्मों के भी निषेध का क्या अर्थ है? ? २. देह के धर्म कौन-कौन से हैं? ३. इन्द्रियों के समग्र निषेध के लिए उसके विषयों के साथ संग की समाप्ति भी क्यों जरूरी है?

    Atma-Bodha Lesson # 31 :

    Play Episode Listen Later Sep 26, 2021 30:43


    आत्म-बोध के 31st श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की पिछले श्लोक में हमने बताया था की अपनी उपाधियों के बारे में महत्त्व-बुद्धि का निषेध करने के बाद आत्मा के यतार्थ का ज्ञान होता है। उसी क्रम में अब इस श्लोक में कह रहे हैं की निषेध करने का अर्थ होता है किसी वास्तु को अनित्य एवं आसार देखना। अपने स्थूल शरीर से लेकर अविद्या रुपी कारण शरीर तक समस्त उपाधियों को सबको स्पष्टता से देखें की ये सब दृश्य हैं, अतः इनमे भी अन्य दृश्य पदार्थों के सभी धर्म विद्यमान हैं। अपने शरीरों को ऐसे देखने पर स्वतः उनका निषेध हो जाता है, और तब हम आत्मा को ब्रह्म जान सकते हैं। अगर कल्पनाएं मन की गहराईयों में बनी रहती हैं तब अपने को ब्रह्म बोलना जाग्रति में पर्यवसित नहीं होता है। इस पाठ के प्रश्न : १. अपने शरीरों के निषेध करने का क्या अर्थ होता है? २. किसी भी दृश्य पदार्थ के अन्दर क्या धर्म होते हैं? ३. क्या निषेध के बजाय हम सतत अपनी ब्रह्मस्वरूपता का ध्यान करें तो क्या ज्ञान हो जायेगा?

    Atma-Bodha Lesson # 30 :

    Play Episode Listen Later Sep 25, 2021 33:38


    आत्म-बोध के 30th श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की आत्मा को स्वप्रकाश जानने के बाद एवं उसको अन्य किसी प्रकाशक से प्रकाशित करने की अनावश्यकता देखने के बाद - हमें अपनी उपाधियों के साथ तादात्म्य को शनैः-शनैः बाधित करना चाहिए। इसको ही उपनिषदों में नेति-नेति की प्रक्रिया कहते हैं। रस्सी को रस्सी जानने के लिए पहले सर्प-बुद्धि समाप्त होनी चाहिए, उसी तरह से आत्मा को आत्मा जानने के लिए अनात्म के साथ अभिमान समाप्त होना परम आवश्यक होता है। उसके बाद अपने परमात्मा के साथ ऐक्य देखना चाहिए। इस पाठ के प्रश्न : १. नेति-नेति की प्रक्रिया क्या होती है? २. निषेध में क्या होता है? ३. निषेध के बाद क्या करना चाहिए?

    Atma-Bodha Lesson # 29 :

    Play Episode Listen Later Sep 24, 2021 31:06


    आत्म-बोध के 29th श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की हमने पिछले श्लोक में देखा था की बुद्धि आदि उपाधि जड़ होती हैं तो प्रश्न होता है की 'हे गुरु महाराज, यह बात समझ में आती है की हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर सब जड़ महाभूतों से बने हैं और इनके पास जो भी जानने का सामर्थ्य है वो भी आत्मा से उधार लिया हुआ है - तो अब हम आत्मा को जाने तो कैसे जाने ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं की - जो भी खुद प्रकाश स्वरुप होता है, उसे जानने के लिए किसी अन्य प्रकाश की जरूरत नहीं होती है, जैसे एक दीपक को जानने के लिए अन्य दीपक की जरुरत नहीं होती है। इस पाठ के प्रश्न : १. अगर बुद्धि जड़ होती है, तो उसका उपयोग किस कार्य के लिए लिया जाता है? २. जड़ दुनिया को जानने के लिए किसकी जरूरत होती है? ३. स्वप्रकाश आत्म को जानने के लिए करना चाहिए?

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